This poem is inspired by the webseries panchayat.
आज तकदीर ने ये कैसा मोड़ लाया है,
शहर छोड़ कर गांव में खुदको पाया है।
सुरुवात का दौर था घुटन से भरा,
सजा थी या कुछ और कोई बतादो जरा।
शहर की बेपरवाह जिंदेगी याद आती हमे,
वीकेंड्स के लेट नाइट पार्टीज फिर बुलाती हमे।
चौड़े से सड़के
या ऊंची ऊंची इमारतें…
रिश्तों के नाम पे
सोशियल मीडिया में हैं पनपते…
शहर की याद यूं सताती रही
मानो लौट आने को पुकारती रही।
मजबूरी ही सही,
वक्त बीतता चला गांव के बादियों में..
खुद को भुला चुकी हूं
नदी के किनारे या हरियाली खेतों में।
सादगी सी भरा जींदेगी और
पलकों में बड़े सपने यहां आज भी है..
जीवन शैली शहर जैसा तो नहीं
पर रिश्तों कि कदर और अपनों वाली बातें आज भी है…
फिर से शहर को भूलने लगी हूं…
गांव के मेट्टी में खोने लगी हूं…
शायद ना हो अनगिनत पैसा या ऋतवा,
अपने गांव के लिए कुछ कर सकूं , ये उम्मीद रखती हूं।
Written by prabhamayee parida
फिर से शहर को भूलने लगी हूं…
गांव के मेट्टी में खोने लगी हूं…
Same feeling at this time . Relevant to this situation.
Beautiful piece of writing.✍️ 💟
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Thank you
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